दीयों से भरी कोठरी का भयानक राज़: क्या आप अकेले पढ़ने की हिम्मत करेंगे?

जब मैं कोलकाता में छोटा था, मेरे माता-पिता का एक कठोर नियम था—हर रविवार की रात मुझे “दीया-कोठरी” में ही सोना होगा। कोई सफ़ाई नहीं, कोई बहस नहीं। बस मैं, एक जर्जर चारपाई और दीवारों पर फ़र्श से छत तक सजे सैकड़ों मिट्टी के दीये—सरसों के तेल से भरे, जिनकी लुनाई यूँ लगती थी मानो अनगिनत मृत आँखें मुझे टकटकी लगाए देख रही हों।

यह सिलसिला तब शुरू हुआ जब मैं छह साल का था। रात के खाने के बाद, माँ मुझे वहाँ ले जातीं, भारी कांथा रज़ाई ओढ़ातीं, और भोर तक के लिए दरवाज़ा बंद कर देतीं। न खिलौने, न किताबें, न बिजली—केवल तेल-लौ का काँपता, पीला उजाला।

कमरे में हमेशा एक अस्वाभाविक सन्नाटा पसरा रहता—इतना घना कि घर के बाकी हिस्से मानो लुप्त हो जाते। न बाहर की गाड़ियों का शोर, न मंदिर की घंटियाँ, यहाँ तक कि गलियों के कुत्तों की हूक भी नहीं। सिर्फ़ जलते तेल की सरसराहट और मेरी धड़कनें। जले हुए हल्दी-धुएँ और चम्पा के गीले इत्र की मिली-जुली गंध फेफड़ों पर बोझ बन जाती, जैसे कमरा खुद मुझे कुचल रहा हो।

पहली बार मैंने कारण पूछा तो माँ ने बस फुसफुसाया, “छाया दूर रहती है।” छाया? वह कौन या क्या थी, मैं नहीं जानता था—पर माँ की सिहरती आवाज़ ने मेरे सारे सवाल गले में ही दबा दिए।

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साल बीतते रहे। रस्म बदली नहीं—हर रविवार, बिना चूक। एक बार दुर्गा-पूजा की भीड़ भरी अष्टमी की रात मैं पंडाल देखने जाना चाहता था। बाबा ने मेरी ओर देखा तक नहीं; निःशब्द दीया-कोठरी का दरवाज़ा इंगित किया। उनका ज़र्द चेहरा मेरे शब्दों को जला गया, और मैं चुपचाप अंदर चला गया।

सोलह की उम्र तक मैं पूछना छोड़ चुका था। अपने मन में इसे “हज़ार आँखों वाली रात” कहता, मगर नींद कभी न आती। नीम अँधेरे में नाचती परछाइयाँ यूँ लगतीं जैसे रोशनी को मसल कर पीना चाहती हों—भूखी, लपलपाती।

फिर मेरा अठारहवाँ जन्मदिन आया। उसी रविवार माँ ने कहा, “अब तुम्हें दीया-कोठरी में सोने की ज़रूरत नहीं।”
मैं हँसा, “अच्छा! आज़ादी मिली?”

माँ ने पलटकर मुस्कुराया तक नहीं—एक पुराना माचिस-डिब्बा मेरी हथेली पर रखकर चुपचाप चली गईं।

मैंने सोचा, सब ख़त्म। पर उस रात मेरी आँख खुली—अपने बिस्तर पर नहीं, बल्कि बर्फ़ जैसे ठंडे फ़र्श पर, दीया-कोठरी में। सारे दीये बुझ चुके थे; बातियाँ काली, तेल सूखा। हवा में कफ़न जैसी ठंड और सन्नाटा इतना गहरा कि मेरे दाँत आपस में टकरा उठे।

मैं भागना चाहता था, मगर दरवाज़ा ग़ायब था—सामने सिर्फ़ गीली, चिपचिपी दीवार, जिस पर किसी ने उँगलियों से काला तेल मल दिया था। मैंने चीख़ लगाई, पर आवाज़ को अंधेरे ने निगल लिया।

फिर वह आया—एक सरसराहट, जैसे किसी बूढ़ी औरत की साड़ी फ़र्श पर रेंग रही हो।
“रोशनी क्यों बुझने दी?” वह फुसफुसाहट मेरे कान के ठीक पीछे थी।

मैंने झटके से पलटकर देखा। परछाइयाँ पैरों से लम्बी, दीवारों से भी ऊँची होकर खिंच रहीं थीं—लंबी टाँगें, खोखली आँखें, और मुँह… मुँह इतना चौड़ा कि वह कुछ भी निगल सकता था। छाया

फुसफुसाहट अब मेरे गले पर गर्म साँस बनकर चिपकी, “तुझे पता है, दीप बुझते ही क्या होता है…”

तभी स्मृति का एक दरवाज़ा चरमराया—बहुत बचपन में एक रात मैं बीमार था, कोठरी नहीं गया। सुबह तक मेरी तकिये पर कँकर-भरा कीचड़ पसरा था, खिड़की पर तेल की अजीब लकीरें, और कमरे में जले बालों की बदबू।

माचिस! काँपते हाथों से मैंने तीली रगड़ी, बुदबुदाता रहा—किसी भूली-बिसरी श्लोक की अधूरी पंक्तियाँ।
एक-एक करके दीये जलने लगे। लौ उठी तो छाया पीछे हटी, पर हर चिनगारी पर वह तड़पकर चिख़ती, जैसे किसी श्मशान से उठी करुण चीख़ें कमरे में गूँज रही हों।

दीयों के पीले वृत्त बढ़ते गए, अँधेरा सिकुड़ता गया, खिड़की की सलाखों में घुलता गया। आख़िरी दीया जला तो दरवाज़ा फिर उभरा—लकड़ी पर तेल की टपकी बूंदों के धब्बे, रक्त-रस की तरह काले।

मैं दौड़ा।

बाहर माँ-बाबा खड़े थे। माँ मुझे कसकर भींचे रो रही थीं; बाबा का चेहरा राख-सा सफ़ेद था।
“तू ज़्यादा देर रह गया,” बाबा ने बुझे स्वर में कहा, “हमें डर था, कहीं तू भूल न जाए…”

उस रात उन्होंने सारा सच उगला—मेरे जन्म के साथ ही किसी पुरानी, भूखी चीज़ ने मुझे चिन्हित कर लिया था। छाया, वह अँधेरी भूख जो उजाला और भुला दिए गए बच्चों का श्वास चूसती है। उसे दूर रखने का एक ही तरीका था—हर हफ़्ते कमरे को रोशनी से भर देना, ताकि लौ उसकी राह रोक सके।

अब मैं बड़ा हो चुका हूँ। यह भार मेरा है।

इसलिए हर रविवार, अँधेरा घिरने से पहले, मैं दीये जलाता हूँ—और दीवारों पर कंपकपाती परछाइयों को घूरता रहता हूँ।

क्योंकि अब मैं जानता हूँ…

छाया को वापस आने के लिए बस एक रात चाहिए।

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