भारत के एक लगभग भुला दिए गए गाँव में, अंधेरे खेतों और टूटी-फूटी रास्तों के पार, एक पुराना बंगला था—लंबे बरगद के पेड़ों के साये में दीवारों पर काई जमी हुई थी और खिड़कियों पर जंग लगे किवाड़ थे। यही वह घर था जहाँ माया अपने माता-पिता और छोटे भाई रोहन के साथ रहने आ पहुँची थी।
यह बंगला कभी उसकी नानी का था, मगर नानी के गुजर जाने के बाद से बंद पड़ा था। गाँव वालों ने कई बार चेतावनी दी,—
“उस घर में रात को रोशनी दिखती है… वहाँ मत जाओ।”
पर शहर से आए इस परिवार ने उन बातों को दकियानूसी मानकर हँसी में उड़ा दिया।
पहली ही रात की बात है। हवा में ठंडक घुली थी और बाहर दूर कहीं सियार रो रहे थे। माया गहरी नींद में थी कि अचानक उसे लगा जैसे कोई धीमे-धीमे फर्श पर पाँव घसीट रहा हो—
खर्र… खर्र… खर्र
वह चौंक कर उठ बैठी। कमरा घुप्प अँधेरा था; बस खिड़की से चाँदनी की एक हल्की धार दीवार पर तैर रही थी। घड़ी ने दो बार आवाज़ की—
टिक-टिक… टिक-टिक
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उसी समय दरवाज़े पर तीन बार धीरे-धीरे खटखटाने की आवाज़ आई—
ठक… ठक… ठक
माया का कलेजा काँप उठा—
“क… कौन है?”
उसकी आवाज़ फुसफुसाहट बनकर गले में अटक गई। कोई जवाब नहीं आया, सब चुप था। लेकिन तेज़ हवा का झोंका दरवाज़े के नीचे से अंदर आया और परदे हिलने लगे। उसे लगा, दरवाज़े के पीछे कोई साँस ले रहा है। उसने डरते-डरते दरवाज़े की कुंडी घुमाई। दरवाज़ा जोर से आवाज़ करता हुआ खुला, और सामने माया खड़ी थी।
उसने वही पीली नाइटी पहनी थी, उसके बाल वैसे ही बिखरे हुए थे जैसे चोट लगने के बाद हो जाते हैं। लेकिन उसका चेहरा बदल गया था—चेहरा बहुत सफेद था, जैसे हड्डी हो, होंठ सूखे और सिकुड़े हुए थे, और उसकी आँखों में अजीब चमक थी, जैसे उसकी आँखों के अंदर कोई लालटेन जल रही हो।
हमशक्ल (जो माया जैसी दिखती थी) ने अपने होंठों को थोड़ा टेढ़ा करके अजीब-सी मुस्कान दी। फिर वह बहुत धीरे-धीरे, जैसे फुसफुसा रही हो, बोली—
‘नानी की आत्मा ने मुझे बनाया है… अब अगली बारी तुम्हारी है… सो जाओ, माया… हमेशा के लिए।’
जब वह यह बोल रही थी, तो उसके चेहरे पर दरारें पड़ने लगीं, जैसे मिट्टी सूखकर फट जाती है। फिर वह अचानक धुएँ में बदल गई और हवा में गायब हो गई।
उसी समय कमरे में ठंडी और मीठी खुशबू फैल गई—बिल्कुल वही खुशबू, जो माया की नानी अपने शरीर पर लगाया करती थीं। माया बहुत डर गई थी, उसका गला सूख गया था, जैसे वह कुछ बोल ही न पाए। डर के मारे उसके पैर काँप रहे थे, लेकिन फिर भी वह धीरे-धीरे आईने के पास गई।
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आईने में उसने देखा कि उसकी बाँहों की चमड़ी सिकुड़ गई है, उस पर झुर्रियाँ आ गई हैं। उसकी उँगलियाँ भी टेढ़ी-मेढ़ी और बूढ़ी औरत जैसी हो गई थीं। उसके बाल, जो अभी तक काले थे, अचानक सफेद हो गए। माया को ऐसा लगा जैसे वह एक पल में ही बूढ़ी औरत बन गई हो—बिल्कुल अपनी नानी जैसी।
उसी समय उसने देखा कि बिस्तर पर उसका असली शरीर पड़ा है, जो करवट बदलकर गहरी नींद में मुस्कुरा रहा है, जैसे कोई बहुत अच्छा सपना देख रहा हो। माया बहुत डर गई, वह चीखना चाहती थी, लेकिन उसके मुँह से आवाज़ ही नहीं निकली, जैसे उसके शब्द तालू से चिपक गए हों।
तभी उसे एक जानी-पहचानी, लेकिन डरावनी फुसफुसाहट सुनाई दी—
“मेरा शरीर तुम्हारा था…”
माया ने डरते-डरते पीछे मुड़कर देखा। वहाँ उसकी नानी की आत्मा खड़ी थी। नानी की आकृति पारदर्शी थी, यानी वह भूत जैसी दिख रही थी। उन्होंने सफेद साड़ी पहन रखी थी, कमर झुकी हुई थी, लेकिन उनकी आँखों में काले धुएँ जैसा कुछ भरा था, जो बहुत डरावना लग रहा था।
नानी की आत्मा बोली—
“…अब तुम्हारा शरीर मेरा है। मौत में स्वागत है, पोती।”
इसके बाद नानी की आत्मा ने बहुत डरावनी, घुरघुराती हँसी हँसी, जो पूरे कमरे में गूँजने लगी। फिर अचानक नानी की आत्मा ओस की बूँद की तरह गायब हो गई, जैसे वह कभी थी ही नहीं। माया ने डरते-डरते अपने असली शरीर को झकझोरा।
पल भर को लगा, जैसे वह पत्थर छू रही हो; फिर उसके होंठ फड़फड़ाए, पलकें काँपीं और आँखें खुल गईं। एक झटके में माया फिर वही सोलह साल की लड़की थी, पर छाती के भीतर नानी की कोई परछाईं हिलती-डुलती महसूस हो रही थी—
“तू कभी अकेली नहीं रहेगी…” कानों में गूँजता धीमा स्वर।
अगले कुछ दिनों में बंगले का हर कोना जैसे जीवित हो उठा। रात के सन्नाटे में सीढ़ियाँ खुद-ब-खुद चरमरातीं। रसोई में बर्तन आपस में टकरा कर खट-खट बोलते, मगर वहाँ कोई नहीं होता। एक शाम बिजली चली गई, तो बरामदे की दियों ने अपने आप लौ पकड़ी—मगर लौ नीली थी, और उसकी रोशनी में नानी की लंबी परछाईं दीवार पर उभरी, फिर दीवार के भीतर समा गई।
रोहन ने डर कर कहा,—
“दीदी, दीवार के पीछे कोई सिसक रहा है,” और उसी क्षण दीवार ने धड़-धड़ करके अपने आप दस्तक दी, जैसे अंदर से कोई बाहर आना चाहता हो।
सबसे डरावनी रात वह थी जब घर के सारे दरवाज़े एक साथ खुल गए—
धड़ाम …धड़ाम …धड़ाम
आँगन में खड़े आम के पेड़ की डालियाँ झूले की तरह हिलने लगीं, और ऊपर से बेमौसम बिजली कौंधी। दरवाज़े के चौखट पर नानी की छाया दिखाई दी, पर इस बार उनकी आँखों में चमक नहीं, घना अँधेरा था। उन्होंने धीमे-से कहा,—
“मेरा सामान… मेरी कोठरी… जब तक सब यहीं रहेगा, मैं कहीं नहीं जाऊँगी।”
अगली सुबह धूप में बंगला शांत था, पर सबके मन में तूफ़ान मचल रहा था। माया ने माँ-पापा को रात की बातें बताईं; अब उनके चेहरों पर भी भय की लकीर थी। उसी दिन उन्होंने पुरानी कोठरी की कुंजी खोज निकाली, जो सालों से जंग लगकर भुला दी गई थी।
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जब माया और उसका परिवार कोठरी का दरवाज़ा खोलते हैं, तो सबसे पहले उन्हें अंदर से बासी धूल की गंध और ठंडा अँधेरा महसूस होता है। जैसे ही टॉर्च की रोशनी अंदर जाती है, वे देखते हैं कि पुरानी साड़ियों की झालरें छत से लटक रही हैं, और लकड़ी के बक्से रखे हैं। इन बक्सों पर नानी के हाथ से लिखा उनका नाम आज भी साफ दिखता है, जिससे लगता है कि ये चीज़ें कितनी पुरानी और खास हैं।
फिर एक भारी संदूक खोला जाता है। उसमें नानी की शादी का लाल जोड़ा, चाँदी की पायलें और एक पीतल की थाली में रखा उनका ताबीज़ जैसा लॉकेट मिलता है। अटारी (छत के पास की जगह) से नानी की पसंदीदा किताबें मिलती हैं।
उनके पन्ने तो पीले पड़ गए हैं, लेकिन उनमें वही इत्र की खुशबू आज भी बसी हुई है, जो नानी लगाती थीं। सबसे नीचे चिट्ठियों का एक बंडल मिलता है। कुछ चिट्ठियों के अक्षर धुंधले हो गए हैं, लेकिन एक लाइन बहुत साफ दिखती है—
“जब तक मेरे जुड़े सारे सामान इस घर में और इस कोठरी में हैं, मैं कहीं नहीं जाऊँगी।”
इस खोज के बाद, शाम को पूरा परिवार आँगन में एक छोटा-सा पवित्र चौक बनाता है। नानी का जोड़ा, पायलें, किताबें और लॉकेट बड़े आदर से वहाँ रखे जाते हैं। पंडित जी मंत्र पढ़ते हैं। माया काँपते हाथों से लॉकेट उठाती है, उसे बगल के पुराने कुएँ के पानी से धोती है और धीरे-धीरे मिट्टी में गाड़ देती है।
उसी मिट्टी में वह चमेली का एक छोटा पौधा लगाती है, क्योंकि नानी को चमेली के फूल बहुत पसंद थे। प्रार्थना के बाद परिवार तय करता है कि नानी की चीज़ें जरूरतमंदों में बाँट दी जाएँगी, और किताबों से घर के बरामदे में एक छोटा-सा पाठशाला-कोना बनाया जाएगा, जहाँ गाँव के बच्चे पढ़ने आ सकें।
रात होते-होते हवाएँ शांत हो जाती हैं। अब दीवारों से कोई अजीब आवाज़ नहीं आती, घड़ी की सुइयाँ भी अब दो बजे पर नहीं रुकतीं, और बंगले में पहली बार एक मीठी-सी गरमाहट महसूस होती है।
उसी रात माया को सपना आता है—उसमें वह अपनी नानी को देखती है। नानी सफेद साड़ी में हवा में लहरा रही हैं, उनका चेहरा बहुत कोमल है, आँखों में अब कोई डरावना काला धुआँ नहीं है, बल्कि ममता की चमक है। नानी मुस्कुराकर कहती हैं,—
“अब मैं आज़ाद हूँ, बच्ची। डर खत्म हुआ… यादें रह गईं।”
सुबह जब सूरज की किरणें बंगले के टेढ़े-मेढ़े मेहराबों पर पड़ती हैं, तो दीवारों का रंग थोड़ा सुनहरा लगने लगता है। आँगन में चमेली के फूल पहली बार खिलते हैं, और हवाओं में इत्र जैसी खुशबू है—लेकिन अब वह ठंडी नहीं, बल्कि नरम और सुकून देने वाली है।
माया बरामदे में खड़ी होकर गहरी साँस लेती है और मुस्कुराती है। उसे समझ आता है कि डर से भागना नहीं चाहिए, बल्कि उसका सामना करना चाहिए। और जब परिवार साथ हो, तो सबसे पुराना और अँधेरा बंगला भी रोशनी और खुशियों से भर सकता है।
आखिर में, माया घर के फाटक से बाहर झाँकती है। दूर-दूर तक खेतों में सुनहरी धूप फैली है। अब कहीं कोई डरावनी परछाईं नहीं है, बस सुबह का उजाला है—एक नई शुरुआत, जिसमें बीती रात की सारी डरावनी बातें पीछे छूट गई हैं।
कहानी से सीख:
यह कहानी हमें सिखाती है कि हमें डर का सामना करना चाहिए, परिवार का महत्व समझना चाहिए, बुराई से लड़ना चाहिए, दूसरों के साथ रहना चाहिए और सच्चाई का सामना करना चाहिए।
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